Saturday, February 21, 2009

डर...

डर
डर कितना अजीब होता है,
कभी कुछ पाने का डर,
कुछ पाके खोनेका डर,
डर हर पल कुछ कहता है,
जिंदगी के लम्हों को, वक्त से बांधते हुए,
डर... कुछ सिखाता है,
खुबसूरत है डर बहोत, महसूस करने की देरी है|

रंगोंमें उलझना, और निकलने का डर,...
अपने आप में ही; चुपचाप बसा है डर...
अपना हाथ थामे दूर तलक ले जाता है डर ... ख्वाबोंकी तरह...???
पर सचाई से आगाह करता है डर, सपनों से बचाता है डर,
खुबसूरत है डर बहोत, महसूस करने की देरी है|

डर एक उजाला है, छुपती हुई तन्हाई का...
कुछ अजनबी रहोंपें बिचडे हुवे सवालोंका...
डर एक आइना है ...
कुछ सिमी परछाईओंका ...
कुछ गहरी अछाइओंका...
कुछ अनकहे जवाबोंका...
खुबसूरत है डर बहोत, महसूस करने की देरी है|

I have written this poem two years back... 1st poem on blog

1 comments:

Madhuri Kaushik said...

I dont know if this is a phaseor what, but I feel utterly fearless for some reason, especially since my Kollam trip. But i'll never forget what guruji said in ashtavakra, that 'fear should be like salt'